06 जनवरी 2010 । बुधवार ।
आज सुबह मैंने अपने कमरे के बाहर कुछ व्यक्तियों को आपस में बात करते सुना -
एक - अपनी जिंदगी तो जैसी भी है .. यार ठीक है । मैं तो उससे संतुष्ट हूं .. ।
कोई दूसरा - लेकिन जैसे लगता है कि मैं तो कुछ कर ही नहीं पाया हूं .. अपना हाल तो आधे खाली गिलास जैसा है । पहला - यार तुम्हारी तो सोच ही निगेटिव है .. तुम्हारी सोच में नकारत्मकता है । तुम तो आधे खाली गिलास को लेकर डिप्रेशन में हो और मुझे देखो मैं तो सोचता हूं हमेशा सकारात्मक .. एकदम पाजीटिव थिंकींग .. । मुझे फिर किसी तीसरे व्यक्ति की आवाज सुनाई दी .. जिसके सोचने का तरीका एकदम अलग था .. वह कह रहा था - तुम लोग भी क्या निगेटिव और पाजीटिव के चक्कर में हो .. यार, गिलास के आधे खाली का यह क्या मतलब निकाल रहे हो कि .. ऐसी सोच नकारात्मक है .. कतई नहीं इस स्थिति को सकारात्मकता में लेना चाहिये .. गिलास के आधे खाली हिस्से को हमें भरना है .. पाजीटिव सोच के ऐसे आयाम को जगह दो .. न कि आधे खाली गिलास का रोना रोओ .. ।
उनके वातार्लाप को सुनकर मुझे लगा कि ब्लाग में इस बात को जरूर लिखना चाहिये .. ।
- डा. जेएसबी नायडू
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