17 जनवरी 2010 । रविवार । 09.45 बजे । रात में ।
निःशब्द है
वातावरण ..
और
स्पंदन ही तो हैं
जो आभास कराते हैं
कि वक्त जिंदा है ..
मुझे मालूम है
कि
वक्त तो .. अभी कोमा में है ..
लेकिन
अनिश्चित अवधि की यह
अस्थाई स्थिति है
और
फिर ..
यह भी निश्चित है .. कि
बाहर निकल आयेगा .. वक्त
किसी दिन .. कोमा से .. अचानक ..
और फिर मुस्करायेगा ..
मुझे
इंतजार है
बेसब्री से .. उस दिन का
और
वक्त भी शायद बेबस .. लेकिन अधीर है ..
- डा. जेएसबी नायडू
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